सघन वन में भ्रमण करते हुए महर्षि वाल्मीकि ने एक क्रौंच युगल को प्रेम में व्यस्त पाया. अभी वाल्मीकि उनकी बाल सुलभ चंचलता पर प्रफुल्लित हो ही रहे थे कि किसी व्याध द्बारा छोड़ा गया एक बाण कहीं से आया और उसने नर क्रौंच के प्राण ले लिए.
भूमि पर गिरकर तड़पते हुए नर क्रौंच और ऊपर करुण विलाप करती हुई क्रौंची को देख कर वाल्मीकि घोर शोक में डूब गए और क्रोध के वश में आ कर उनके मुख से अनायास ही निकल पड़ा :
" मा निषाद! प्रतिष्ठाम्त्वम्गम शाश्वातिसम |
यत् क्रौन्च्मिथुनदेकम्वधि काममोहितम || "
" हे निषाद (व्याध) ! तू अधिक दिनों तक प्रतिष्ठित (जीवित) नहीं रह सकेगा क्योंकि तुने क्रौन्चों के जोड़े में से प्रेम में डूबे हुए क्रौंच का वध किया है "यत् क्रौन्च्मिथुनदेकम्वधि काममोहितम || "
इस श्राप से जन्म हुआ वाल्मीकि रामायण का जहाँ क्रौन्चों के स्थान राम - सीता ने लिए और लंका नरेश रावण बना व्याध!
जाने कितनी सहस्त्राब्दियों के बाद एक और क्रोधित कवि रामधारी सिंह दिनकर ने एक नए सन्दर्भ में उस अध्याय कि विवेचना करते हुए लिखा:
"समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध !
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध ! "
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध ! "
कितने आश्चर्य कि बात है कि सदियाँ बीत गयी लेकिन कथा वही कि वही है. आज के परिदृश्य में क्रौंची है जनता, वधित क्रौंच है जनता के अधिकार और व्याध है हमारी व्यवस्था के ठेकेदार. विडम्बना यह है कि अब वाल्मीकि भी स्वयं जनता ही है जो कि सिर्फ प्रलाप करते हुए व्याध को कोस भर सकती है, प्रतिरोध नहीं करती, संघर्ष के लिए हुंकार भरकर उठ खड़ी नहीं होती ...
... प्रजातंत्र के इस नाटक में वाल्मीकि का वो श्राप आज कितना निष्फल प्रतीत होता है !
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