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आरम्भ है प्रचन्ड !!!

Sunday, May 3, 2009

Only once in a very long time comes a piece of poetry which makes you sit up and take notice, and then makes unsettled and restless as well. Here is one such song, a piece of sheer poetry which is more like a dragon breathing fire through its flaring nosetrills.

This song his heavy in tatsam hindi and is from the hindi movie Gulaal (an equally disturbing masterpiece). However I will have serious objections if someone says this is a Bollywood product. A typical bollywood song is more with words like dil, dhadkan, saajan, ishq, piya etc etc . This song is a warcry, a challenge thrown by the Indian Cinema!

Looking at the great battle of Indian democracy, how true it feels : Aarambh hai Prachand!

Enjoy a masterpiece by a gifted poet , Piyush Mishra....

आरम्भ है प्रचन्ड बोल मस्तको के झुँड
आज जँग की घड़ी की तुम गुहार दो

आन बान शान या कि जान का हो दान आज
इक धनुष के बाण पे उतार दो
आरम्भ है प्रचन्ड ....

मन करे सो प्राण दे, जो मन करे सो प्राण ले
वही तो एक सर्वशक्तिमान है

विश्व की पुकार है ये भागवत का सार है
युद्ध ही वीर का प्रमाण है
कौरवो की भीड हो या, पान्डवो का नीड हो
जो लड़ सका है वो ही तो महान है...

जीत की हवस नहीं
किसी पे कोई वश नहीं
क्या ज़िन्दगी है ठोकरों पे मार दो
मौत अंत है नहीं
तो मौत से भी क्यों डरें
ये जाके आसमान में दहाड़ दो !

आरम्भ है प्रचंड बोले मस्तकों के झुंड
आज जंग की घड़ी की तुम गुहार दो
आन बान शान या की आन का हो दान
आज ईक धनुष के बाण पे उतार दो
आरम्भ है प्रचंड ...

हो दया का भाव
या कि शौर्य का चुनाव
या कि हार का वो घाव
तुम ये सोच लो ...

या कि पूरे भाल पर
जला रहे विजय का
लाल लाल ये गुलाल
तुम ये सोच लो

रंग केसरी हो या
मृदंग केसरी हो या
कि केसरी हो ताल
तुम ये सोच लो

जिस कवि कि कल्पना में
ज़िन्दगी हो प्रेम गीत
उस कवि को तुम नकार दो
भीगती रगों में आज
फूलती नसों में आज
आग कि लपट को तुम उतार दो

आरम्भ है प्रचंड ....

To get the feel you can listen to the song here : http://www.youtube.com/watch?v=S3yuxGcAghI&feature=related

If you haven't watched Gulaal yet , watch it !
Good cinema should be encouraged.

बुद्ध का अट्टहास

Friday, June 13, 2008


गाँधी के भाषण बहुत सुने,
अब बुद्ध का अट्टहास सुनो !
बहुत हुई पंचशील की चालें,
अब गौरव की बात करो !
देखो इतिहास दिखा रहा है,
अपनी बातें उनकी घातें !
हैं संगीनों के साए तले,
क्या गीत प्रेम के गाए जाते ?
भारतभूमि धधक रही है,
गूँज रहा है आर्तनाद!
हे मृत्युंजय अब तो जागो,
दूर करो सारा विषाद!
तुम तो भाग्य विधाता हो,
दिखला दो उनकी औकात !
हुणों को भी धुल चटाओ तुम,
इन मलेच्छों की क्या बिसात?
भारत वर्ष अखंड रहेगा,
बोलो डंके की चोट पे !
शांति अगर लानी है तो,
लाओ बंदूक की नोक पे !
सोये हो तुम हजार साल,
अब निद्रा का त्याग करो !
भारत माँ पुकार रही है,
अब सर्वस्व बलिदान करो !
यह आह्वाहन है समय का,
यह युद्ध की ललकार है !
पूरे हुए प्रतीक्षा के पल,
क्रांति दिवस आज है !


This poem was written by me after the Pokharan Nuclear tests. This is a call to the Indian to rise and start the struggle, with violence as the weapon this time. Non- Violence is relevant when the adversary is a human. When you are fighting then you have to be the Evil with Evil. The poem draws its inspiration from Jayshankar Prasad's "तुम हमारी चोटियों की बर्फ को यूँ मत कुरेदो " written after the war of 1962. The phrase "बुद्ध का अट्टहास " may make you remember that news of the blasts was conveyed as, "Buddha has smiled !"

जनयुद्ध का आह्वाहन

Wednesday, June 11, 2008

सुनो भारत के मजदूरों,
यह जन विद्रोह का नारा है !
कब तक ये अत्याचार सहे ?
सत्ता का तिरस्कार सहे ?
अब उठो कि वक़्त हमारा है,
सम्पत्ति का मालिक सर्वहारा है!
जन क्रांति की मशाल जले,
जनता का हर मलाल जले!
जो जोते जमीन उसी की हो,
अपना भाग्य विधाता मजदुर ही हो!
अबके होली क्रांति से मने ,
रक्त रंग बारूद गुलाल बने!
जनयुद्ध की यही आवाज़ है,
बंदूक ही हमारी मित्र आज है !



मत कहो, आकाश में कुहरा घना है

Friday, May 16, 2008

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।

दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।

--दुष्यंत कुमार

गांधीजी के जन्मदिन पर

मैं फिर जनम लूंगा
फिर मैं
इसी जगह आउंगा
उचटती निगाहों की भीड़ में
अभावों के बीच
लोगों की क्षत-विक्षत पीठ सहलाऊँगा
लँगड़ाकर चलते हुए पावों को
कंधा दूँगा
गिरी हुई पद-मर्दित पराजित विवशता को
बाँहों में उठाऊँगा ।


इस समूह में
इन अनगिनत अचीन्ही आवाज़ों में
कैसा दर्द है
कोई नहीं सुनता !
पर इन आवाजों को
और इन कराहों को
दुनिया सुने मैं ये चाहूँगा ।

मेरी तो आदत है
रोशनी जहाँ भी हो
उसे खोज लाऊँगा
कातरता, चु्प्पी या चीखें,
या हारे हुओं की खीज
जहाँ भी मिलेगी
उन्हें प्यार के सितार पर बजाऊँगा ।

जीवन ने कई बार उकसाकर
मुझे अनुलंघ्य सागरों में फेंका है
अगन-भट्ठियों में झोंका है,
मैने वहाँ भी
ज्योति की मशाल प्राप्त करने के यत्न किये
बचने के नहीं,
तो क्या इन टटकी बंदूकों से डर जाऊँगा ?
तुम मुझकों दोषी ठहराओ
मैने तुम्हारे सुनसान का गला घोंटा है
पर मैं गाऊँगा
चाहे इस प्रार्थना सभा में
तुम सब मुझपर गोलियाँ चलाओ
मैं मर जाऊँगा
लेकिन मैं कल फिर जनम लूँगा
कल फिर आऊँगा ।

--दुष्यंत कुमार

गुलाबी चूड़ियाँ

Wednesday, May 14, 2008

प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!
- नागार्जुन